यादगार पल

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शनिवार, 13 जून 2015

हाँ तुम!!

हाँ तुम!!
मुझसे प्रेम करो।
जैसे मैं तुमसे करता हूँ।
जैसे मछलियाँ पानी से करती हैं,
उसके बिना एक पल नहीं रह सकती।
जैसे  हृदय हवाओं से करती है
हवा बिना हृदय गति रूक जाती है

हाँ  तुम !!
मुझसे प्रेम करो।
चाहे  मुझको प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो।
जहाँ एक झरने की तरह तड़पता रहूँ।
चाहे सूर्य की किरणों में जलने दो,
ताकि तुम उस सूर्य की तेज लपट में
मुझे दिखाई देती रहो।

हाँ तुम !!
मुझसे प्रेम करो।
उस उजाला की तरह।
जो मीठी -मीठी सुबह में आकर ,
सबको मिठास देती है।
उस चाँदनी की तरह,
जो बिन बताये रातों में आकर,
शीतलता प्रदान करती है।

हाँ तुम !!
मुझसे प्रेम करो।
उस कोयल की कुक की तरह,
जो कानों में सुरीली आवाज़ देकर
मन को शांत करती है।
उस मोर-मोरनी की तरह
जो अपनी सुन्दरता को दिखाकर
मन को मोहिनी बना देती है।
@रमेश कुमार सिंह
http://shabdanagari.in/website/article/हाँतुमकविता-6109

मुक्तक


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नज़र से नजर मिली तो मुलाकातें बढ गई।
 हमारे तुम्हारे सफर की कुछ बातें बढ़ गई।
 हर मोड़ पर खोजने लगी तुम्हें मेरी आँखें,
ऐसा हुआ मिलन कि हर ख्यालों में आ गई।

@रमेश कुमार सिंह /०७-०६-२०१५

हाइकु

खूबसूरत,
मनमोहक अदा,
झुकी नज़र,
 @रमेश कुमार सिंह

नहीं करते ..

साथी छूटे भी तो भूला नहीं करते
 वक्त की नजाकत से छोड़ा नहीं करते
 जिसकी आवाज में नम्रता और मिठास हो
 ऐसी तस्वीर को दिल से हटाया नहीं करते।


जीने का सहारा मिलता है थोड़ा- थोड़ा,
यूँ ही चले जाने वालों का दिल तोड़ा नहीं करते
 जो सीधे अपनी गति में बढते है उसे बढने दो
 ऐसे लोगों का कभी रूख मोड़ा नहीं करते।
——@रमेश कुमार सिंह

उम्मीद (कविता)

मैं जब कभी -कभी कमरे में जाकर,
शान्तिः जहां पर होता है,
चुपके से अपनी लिखी हुई पुराना कागज पढता हूँ
 मेरे जीवन का कुछ विवरण अक्षरों में अंकित है
 वह एक तरह का पुराना प्रेम-पत्र है
 जो लिखकर, रखे थे देने के लिए किसी को,
जिसे पाने वाला काफी दूर चला गया है।
 मिलने की कोई उम्मीद नहीं
 फिर भी आश लगाये हुए हैं
 इसी वजह से उसे कभी -कभी कोने में जाकर,
एकांत जहा पर होता है ।
 उस पन्ने को दोहराया करते हैं।
@रमेश कुमार सिंह

तुम...(कविता)

कहाँ रह रही हो तुम मुझे अकेला छोड़कर
 दुनिया की महफिल में मुझे तन्हा छोड़कर
 मुसाफिरों की तरह यहाँ चक्कर काटता हूँ
 मना लेता मन को,आने की आहट सुनकर


रह जाता है मेरा दिल देखने को मचलकर
 झलक न दिखे तो रह जाता है मन तरसकर
 अगर तुम आखों से ओझल हो जाती हो तो,
हृदय के अन्दर रह जाता है दिल तड़पकर


अगर सृजन कर जाती प्रेम-प्रस्फुटित कर
 सृजन-सृजित मधुर-मिलन संगीनी बनकर
 हर लो मन की तपन फूलों से सुसज्जित कर
 इतना ध्यानकर मुझमें प्रेम की धारा बहाकर
@रमेश कुमार सिंह
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सोमवार, 8 जून 2015

तनहाईयां

जिन्दगी मे  रह-रह कर तनहाईया मिलती हैं
हर मोड़ पर ठहर कर रूसवाईया मिलती हैं
न जाने कब तक ये मंजर चलता रहेगा यारों
इस कठिन डगर पर कठिनाइयाँ मिलती हैं
सफर में उसकी यादों की पंक्तियां मिलती हैं
जिसे पन्नों में बिखेरने की शक्तियां मिलती हैं
शब्दों को लिख कर बिताया करता हूँ यारों
कभी पन्नों पर उभरकर झाँकिया मिलती है
झाँकिया में उसकी धुधलीसी तस्वीर मिलती है
आपस में बिताये लम्हों की लकीर मिलती हैं
इन्हीं लकीरों को मैं जोड़ -जोड़ कर यारों
तैयार करता हूँ तो एक बड़ी जंजीर मिलती है
वो दूर जाने के बाद यादों केरूप में मिलती हैं
कभी-कभी वो आवाज़ों के रूप में मिलती है
ये आवाज़ जब दिल के अन्दर गुँजता हैं यारों
तो ख्यालों और सपनों में बार-बार मिलती है।
जब उस  समय हमसे वो बारम्बार मिलती थी
लगता था  कोई  कली  में फुल खिल रही थी
उस अ को मैं खिलखिलाता देखकर यारों
मेरे हृदय में खुशियों की लहर उठ जाती थी
------@रमेश कुमार सिंह २३-०५-२०१५

मंगलवार, 2 जून 2015

तुम्हारे हर सवाल ....(कविता)

तुम्हारे हर  सवाल मेरे दिल के अन्दर उलफत मचाता रहेगा।
न जाने कब तक यादों के झरोखो मे आशियाना बनाता रहेगा
तुम्हारे हर कायदा को बरकरार तब- तक संजोकर रखूँगा मैं,
जब- तक हुस्न  के हर सलीके नजरों के रास्ते  समाता रहेगा।
तुम्हारे लबों से निकली लफ्जों के मिठास मन में आता रहेगा।
तुम्हारे काले-काले घुघराले बाल घटा के जैसे बिखरता रहेगा।
मेरे उपर तुम्हारी आखों का नशा इस तरह चढता चला गया,
कि रोक नही पाया अपनेआपको मैं नशिला बनता चला गया।
 @रमेश कुमार सिंह /१३-०५-२०१५
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