यादगार पल

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सोमवार, 27 अप्रैल 2015

मैं बहुत उदास हूँ •••!(कविता)

क्या अब मेरे,
सुख भरे दिन नहीं लौटेगें।
क्या अब मेरे कर्ण ,
उस ध्वनि को नहीं सुन पायेगें
क्य अब मेरे हँसीं,
उस हँसीं में नहीं मिल पायेगें।
क्या अब कोई,
मुझसे यह नही कहेगा-
ओ प्रिय ! तुम अकेले कहाँ हो,
मैं भी तेरे साथ में हूँ।


यदि मूझमे यह प्रवृत्ति अनवरत है।
तो इसलिए कि-
हो सकता है कोई मेरे जैसा-
उदास, मनमारे हुए।
आने वाले कल में आये।
और मेरे इस उदास भरे जिन्दगी में,
कोई संगीत सुनाकर,
हो सकता है दीप जलाये।
और दुबारा यही बात कहे-
ओ प्रिय ! तुम अकेले कहाँ हो,
मैं भी तेरे साथ में हूँ।


दिन ढल चुका है।
शाम हो चुकी है।
पंछी अपने बसेरा की तरफ लौट रहे हैं।
क्षितिज में-
धुन्ध का पहरा हो रहा है।
सामने एक नदी दीख रही है,
उसमें लहरें चल रही है।
जो बहुत उदास है।
मैं बहुत उदास हूँ।
—– @रमेश कुमार सिंह

रविवार, 26 अप्रैल 2015

धरती में कंपन (कविता)

सहसा,
अचानक बढ़ीं धड़कन,
हृदय में नहीं,
धरती के गर्भ में।
मची हलचल,
मस्तिष्क में नहीं,
भु- पर्पटी में।
सो गये सब,
मनुष्य सहित,
बड़े-बड़े मकान।
सो गये सब
पशुओं सहित,
बड़े-बड़े वृक्ष।
मचा कोहराम,
जन- जीवन में।
हुआ अस्त-व्यस्त
लोगों का जीवन।
फट गया कहीं-कहीं,
धरती का कपड़ा।
टूट गया हर -कहीं,
कोई धागा नहीं,
ढेर सारे मकान।
उजड़ गया सब,
चिड़िया का घोसला सहित,
मानव का आवास।
यहाँ आया था,
कोई जादूगर नहीं,
प्रलय विनाशकारी।
मचा गया प्रलय का ताण्डव,
यह क्षणभर का विपदा,
दे गया आँखों में आँसू।
बहुत से लोग चले गये,
कहीं मौज मस्ती करने नहीं,
अपनी अन्तिम यात्रा पर।
दे गये पिड़ा सिर्फ़,
अपनों को ही नहीं,
पुरे मानवता को----
यहीं हुआ धरती में कंपन।
--------@रमेश कुमार सिंह
-----------२६-०४-२०१५

गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

निश्छल प्रेम कथा कह रही हो!!


तुमसे जब होता है,
नयनोन्मीलन।
मुझे ऐसा एहसास होता है।
तुम्हारी अधरों के,
मधुर कंगारो ने।
तुम्हारी ध्वनि की,
गुंजारो ने ।
तुम्हारी मधुसरिता सी,
हँसीं तरल।
रजनीगंधा की तरह,
कली खिली हो।
राग अनंत लिये,
अपने अधरों में।
हँसीनी सी सुन्दर,
पलको को उठाये हुअे।
मौन की भाषा में।
विस्फारित नयनो से,
निश्छल प्रेम कथा कह रही हो

बुधवार, 1 अप्रैल 2015

दु:ख (कविता)


सुबह में मैं बहुत खुश था
लिये मन में सपने सुंदर था
अपने घर की ओर जा रहा था
खुशियों का लहर मन में था
तभी अचानक वो आया था
दुखों का लिया पहाड़ था।
सबको बाटना चाहता था।
बाटा सबको थोड़ा -थोड़ा
हिस्सा हमें भी दे रहा था
नहीं लेने का कर रहा था
उन लोगों से गुजारिश
तकाजा नियम का दे रहा था।
नियम का दिखावा कर
आलोक नियम का दिखाकर,
कर दिया सबको अन्दर यही
मेरा दुख भरा समन्दर।
 ------०२-०२-२०१५-------
--------रमेश कुमार सिंह ♌